बिन तेरे मैं हूँ कुछ ऐसे,
बिन कुम्हार के माटी जैसे ( जैसे हो बस उडती धूल)
मैं शायद तुझसे लड़ बैठूं,
या दामन में दाग लगा दूं
पर तू मुझसे दूर न जाना ,
तुझ बिन कहाँ है मेरा ठिकाना
मैं तो बस एक तत्व मात्र हूँ,
तुमको है जिसको रतन बनाना
प्रेम है खेल कुम्हार का
हम सब जैसे गीली माटी
तुम मुझको आकार दिला दो
फिर मुझको तपना होगा
तब जाकर यह खेल सजेगा
तब जाकर मैं पात्र बनूँगा
तब जाकर संजोग बनेगा
हाँ तब ही तो मोक्ष मिलेगा
तुम मुझको आकार दिला दो
छू कर मुझको, मath कर मुझको
रूप मिटा कर पुनः सजा दो
मैं तप कर फिर बन सकता हूँ
बस अपने हाथों से मुझको
इस चकिया पर सहज बैठा दो
तुम मुझको आकार दिला दो